Stringer  / एक अनजाना जानकार

 ‘स्ट्रिंगर’यह क्या है 

इस शब्द को सरल भाषामे समझे तो उसका मतलब एक अनजान माध्यम जो यह जानकारी दे रहा है। वैसे तो यह शब्द १७०८ की सदी में चलन में आया है।  जिसका सही अर्थ स्थापत्य से जुड़ा है। दो छोर को जोड़ने या मजबूत बनाने के लिए जो क़्वालम बनाया जाता है ,उसे ” स्ट्रिंगर “ कहा जाता है। आगे इसे अंशकालीन याने अपने तनख्वा लेनेवाले पत्रकार प्रतिनिधियों से अलग मानदेह पर कुछ समय के लिए काम करनेवाला या खबर बनानेवाला व्यक्ति इस परिभाषामें शुमार किया गया। इसका उपयोग १९४८ में बड़े जोरो से हुवा। उसके बाद २०१२ में इसका उपयोग देश की सरकार बदलने के लिए इलेक्ट्रॉनिक मिडियाने किया। विदेशो में यही स्ट्रिंगर किसी एक संस्थासे जुड़े नहीं होते। कई सारी संस्थावो के साथ जुड़कर पैसा कमाते है। वहा इन स्ट्रिंगर के शर्तो पर पैसो के एग्रीमेंट किये जाते है। साथ ही इस शब्द को लिखने का सही तरीका “स्ट्रिंगर रिपोर्टर”ऐसा है। दुर्भाग्य से हमारे देश में लिखने के तरीके से लाख रुपये की तनख्वा लेनेवालों को आपत्ति होती है। इसलिए बहुत सारे मिडिया हाउस  स्टिंगर रिपोर्टर को पहचान पत्र तक देना मुनासिब नहीं समझते। आजकल तो इन्हे न्यूज़ सर्विस एजेंट तक कहा जाने लगा है। इतने निचले अस्तर पर पत्रकारिता आ चुकी है। 

कितना प्रभावशाली माध्यम है,कैसे काम करता है


 इसी स्ट्रिंगर की बदौलत पुरे हिन्दुस्थान में आज की इलेक्ट्रॉनिक मिडिया एक प्रभावी माध्यम के रूपमे उभरकर आया है। यही वास्तव हिन्दुस्थान के प्रिंट मिडिया का भी है। ऐसे “स्ट्रिंगर ” बेस काम करनेवालों की तादात एखाद करोड़ के करीब होगी। स्थानीय सतह पर सामान्य लोग इन्हे बहुत बड़ा पत्रकार मानते है।इसी वजह से छोटी से छोटी जानकारी भी इनसे साझा करते है।  इस जानकारी में सचमुच कुछ खबर है ,या नहीं इसे वेरिफाई करने के लिए चार फोन करता है। उसके बाद अपने असाइनमेन्ट को सूचित करता है।  वहां पर मौजूद संपादक कभी यह बहुत निजी मामला कहता है। कभी आपको इसमें क्या खबर नजर आ रही है ? ऐसे बोलकर उस सच्चाई का दम तोड़ देता है। 
बाद में वही खबर दूसरा चैनल दिखने लगता है ,तो दिल्लीसे फोन आता है ,आपने यह खबर क्यू नहीं बताई ? मेल क्यू नहीं किया ? अब उसमे हमें यह चाहिए ,बाकि हमने किसी न्यूज एजेंसी से ले लिया यह बोला जाता है। जब के इसी खबर को दो दिन पहले उनका अपना स्टिंगर बता चूका होता है। 
स्ट्रिंगर के जीवन में दिल्ली का मूड बहुत मायने रखता है। यही दिल्लीवाले स्टिंगर के यहाँ होनेवाले किसी एक्सीडेंट को रहने दो ,छोड़ दो कहकर खबर को रोक देता है। उसी की शिफ्ट में दिल्लीमे हुयी हलकी सी भिड़ंत की खबर ब्रेकिंग के रूप में चलाता है। यह सिर्फ इसलिए होता है क्यू के वह दिल्लीमे बैठा होता है। वह केवल अपने आठ घंटे के नौकरी से मतलब रखता है। यहाँ निचली सतह पर उन्ही का स्ट्रिंगर २४ घंटे अलर्ट पर होता है। जरा कुछ हुवा तो यह वहा पहुंच जाता है।  बदले में इसे रहने दो। .. क्या खबर है ?  नहीं चलेगी यह नसीब होता है। क्यू के कंपनी उसे तनख्वा नहीं देती।

बंधुवा मजदूरी का सर्वोत्तम उदहारण है “स्ट्रिंगरशीप  “

क्या मिलता है ,इस स्ट्रींगरशिप में इस को समझने के लिए दिल्लीवालों की और उन्ही के स्ट्रिंगर की १६ नंबर २६ नंबर को देखे तो पता चलेगा। और सामने आएगा एक काला सच जो बया करेगा हिंदुस्थानी चौथे स्तंभ के शोषण और दमन। एनडीटीव्ही ,आजतक,न्यूज १८ ,ए बी पी ,टीवी९ ,न्यूजनेशन,ज़ी ऐसी बहुत कम मिडिया हाउस है ,जो इन स्ट्रिंगर के काम को न्याय देते है। उन्हें बराबरी का मौका देते है। हिंदुस्थानी चौथे स्तंभ के कई बड़े बड़े मिडिया हाउस स्ट्रिंगर को कंडोम की तरह इस्तेमाल करते है। यही वास्तव इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मिडिया दोनों में एकजैसा है। प्रिंट की बात करे तो देशभर में हजारो ऐसे अखबार है ,जो अपने स्ट्रिंगर को फूटी कौड़ी नहीं देते।  उल्टा उससे विज्ञापनों के कमीशन का लालच देकर अपने आप को धनिक करनेमे लगे है। मै तो मानता हु के ग्रामीण इलाके के पत्रकार केवल विज्ञापनों के माध्यमसे पैसा लूटने की रचना के लिए इस्तेमाल होते है।

इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मिडिया की बंधुवा मजदूरी में क्या फर्क है

प्रिंट मिडिया के पत्रकारों को संस्था पैसा देती नहीं है,मानदेह जो देती है उससे उस ग्रामीण पत्रकार का केवल फोन बिल दिया जा सकता है। उसके जीवनयापन की कोई गारंटी नहीं।और उसके ऑफिस के चपरासी से लेकर संपादक तक सभी लोग एक तगड़ी तनख्वा लेते है और अपने स्ट्रिगर से मुफ्त में काम करवाते है। हाल में मुझे एक अखबार से फोन आया था , सामनेसे संपादक बोल रहे थे। यह खबर अब दूसरे मालिक ने ख़रीदा है ,आप पहले यहाँ काम करते थे यहाँ लगी लिस्ट में आपका नाम है। आप दुबारसे काम शुरू कीजिये पहले तीन महीने आपको कुछ दे नहीं पाएंगे उसके बाद एक हजार रुपये महीना मानदेह देंगे। उनकी बात सुनकर मैंने सवाल किया आपने जो लिस्ट देखि उसमे मुझे पहेलवाली संस्था चालक कितना मानदेह देते थे यह भी लिखा होगा। उन्होंने कहा तीन हजार और फोन बिल देते थे यह लिखा है। बात आगे बढ़ाते हुए मैंने कहा अगर आप मुझे जिले का प्रतिनधि बनाते है तो पचीस हजार तनख्वा में काम शुरू कर सकते है। संपादक महोदय ,बोले हमारा ब्रांड आपके नाम के साथ जुड़ेगा इसे समझते हो तो मैंने कहा एक्रेडेशन के लिए सैलरी स्लिप और लेटर दे दो। तो संपादक महोदय बोले मेरे हाथ में नहीं है। मुझे असल मुद्देपर आनेके लिए पूछा अपने ऑफिस में चपरासी को कितनी तनख्वा दे रहे है इस समय उन्हों ने जबाब दिया २२ हजार तुरंत उनसे पूछा के क्या उसने भी तीन महीने मुफ्त में काम किया है ? संपादक महोदयने फोन काट दिया। यह वास्तव है प्रिंट में काम करनेवाले स्ट्रिंगर का। जब पैसा ही नहीं मिलेगा तो यह खुदबखुद किसी राजनेता के यहाँ विज्ञापन पा ने के लिए जुड़ जाता है। कुछ दिनों में उसका बंधुवा मजदुर बनकर केवल चाटुकारिता करता है। इस सच्चाई को देख मेरे मनमे बार बार एक सवाल आता है ,ऐसी पत्रकारिता समाज और देश निर्माण में सही और सच्ची और अस्पस्ट भूमिका निभा सकती है ? जो खुद रसूख़दारोका गुलाम हो उससे समाज के लिए बहुत कुछ करने की आशा रखना बेकार है। 

प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक में बेहतर कौन

प्रिंट मिडिया की तुलना में इलेक्ट्रॉनिक मिडिया के स्ट्रिंगर में थोड़ा अंतर है ,इनके ऑफिस में काम करनेवाला महीने की तनख्वा आधे लाख से लेकर दस लाख तक लेता है और टी व्ही स्क्रीनपर गरीबो के अधिकार पर चिल्लाचिल्लाकर बोलता है। और अपने स्ट्रिंगर के एक स्टोरी तीन सौ से पाँच, सात सौ रुपये दिए जानेवाले पैसो पर कभी चर्चा नहीं करता। फिरभी प्रिंट के मुकाबले पर स्टोरी पैसे दिए जाते है। यह पैसा देने का और अपने स्ट्रिंगर का ध्यान रखने चलन कुछ गिने चुने चैनल में ही है। 

सरकार के पास ठोस और सक्षम निति नहीं

कुछ मिडिया हाउस तो इतने घटिया है ,वे अपना माइक आई डी देनेके लिए पंद्रह हजार रुपये ” स्ट्रिंगर “से वसूलते है। ऐसे चैनल  सरकारने किन नियमो के आधार पर लाइसेंस दे रखी है यह उपरवालाही जाने।आज की तारीख़ में सरकार के पास इलेक्ट्रॉनिक मिडिया के पंजीकरण और निगरानी की कोई सक्षम व्यवस्था नहीं है। इसी वजह से कुछ कथित संपादक तलवार लिए फोटो फेसबुक ,ट्विटर जैसे सोशल मिडिया पर सार्वजनिक कर सरकार और मिडिया का मजाक बना रहे है।  

By Admin

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